पत्ता
वह जागा एक सुबह
देखा एक पत्ता भूमि पर निर्जीव
अल्पविकसित बुद्धि
फूँक मारकर उड़ाना चाहा
पर पत्ता न उड़ा |
खीझकर फेंके पत्थर उसने पत्ते पर
पत्थरों से चिंगारी निकली
उसकी आँखें चमकी ! आविष्कार !!
पत्ते को जलाना चाहा
एक रेशा भी न जला |
अब क्या करे?
इर्द गिर्द देखा
एक लकड़ी कुछ पत्थर व लताएँ
सोच कुछ विकसित हुई
बाँधा लकड़ी मे पत्थर
और बनाया यंत्र ! आविष्कार!!
खोद डाली पत्ते के नीचे की माटी
पत्ता हवा मे झूलता रहा
आवेश में दे मारा यंत्र उसने पत्ते पर
मंद बयार बह चली तभी
और बह चला पत्ता संग संग |
"अदभुत अद्वितीय अकल्पनीय
मेरी बुद्धि मेरी इच्छा मेरी शक्ति
सृष्टि होगी अधीन मेरे
हिलेंगे पत्ते इच्छा से मेरी ! "
क्या वाकई उसकी इच्छा से ?
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phodu post man... very deep thoughts expressed beautifully...
ReplyDeletenothing happens w/o the sanction of God.
ReplyDeletebeautifully put forth thru the poem. keep it up man
Thanks! :)
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