Thursday, January 28, 2010

वो...

वो एक ग़रीब बाप की औलाद है. उसका बाप था तो पहले से ही ग़रीब, पर उसके पैदा होने के बाद और भी ग़रीब होता चला गया. वो पैदा होते वक्त ऐसे रो रहा था मानो पैदा होने के पहले भगवान ने उसे इस दुनिया का चलचित्र दिखा दिया हो और वो गर्भ से निकलना ही ना चाह रहा हो क्यूँकी उसमें गर्भ की सुरक्षित दुनिया को छोड़कर निर्दयी वास्तविक दुनिया मे कदम रखने की हिम्मत नही थी. वैसे वो इस वजह से नही रो रहा था. उसके रोने का कारण था उसका शक्तिहीन शरीर. उसके अंगो मे जान ही नही थी. उसकी मरियल माँ, जो उसको गर्भ मे पालते पालते और अपने भोजन का एक हिस्सा उसकी नाभि के रास्ते उसके शरीर में पहुँचाते पहुँचाते और भी मरियल हो गयी थी, उसको जन्म देते ही दुनिया से चल बसी. पर शायद भोजन का वो एक हिस्सा, जिसके लिए गर्भ मे पल रहे बच्चे और गर्भ संभाल रही माँ के बीच मे संघर्ष होता था और अंततः वो बच्चा उस हिस्से को खींच लेता था, उस बच्चे के लिए पूरा नही पड़ा. परिणाम ये हुआ की वो बच्चा एक शक्तिहीन शरीर और अविकसित बुद्धि लेकर इस विकासशील देश, जो २०२० तक विकसित होने वाला है, में पैदा हुआ.

हाँ तो वो रोते हुए पैदा हुआ और फिर रोता ही रहा. उसकी माँ चल बसी तो बाकी सब भी रोने लगे. किसीने उसको चुप कराने की नही सोची. और वो रोता रहा. वो बड़ा भी रोते रोते हुआ. जितनी देर वो सोता था बस उतनी देर शांत रहता था, उठते ही रोने लगता था. और अगर रोता ना तो चिल्लाता रहता, आसपास की चीज़ों को उठाने की कोशिश करता, पर उसके हाथ चीज़ों को थोड़ा बहुत हिलाने के अलावा कुछ ना कर पाते, और वो अपनी इस अशक्तता से खीझकर चिल्लाता, रोता और हाथ पैर पटकता. इसी तरह रोता, चिल्लाता और हाथ पैर पटकता वो बारह साल का हो गया. अब उसके हाथ पैरो में कुछ जान आ गयी है और घिसट-घिसटकर चल लेता है.

बात करते हैं उसके ग़रीब बाप की. भारत की आधी जनता की तरह उसका बाप भी किसान था और भारत की एक तिहाई जनता की तरह वो भी ग़रीबी रेखा के नीचे था. हालाँकि भारत में ग़रीबी रेखा जिस तरह से परिभाषित की गयी है, उससे तो इस रेखा का नाम बदलकर भुखमरी रेखा कर देना चाहिए. खैर भारत के सभी मर्दों की तरह इस ग़रीब किसान की भी शादी हुई और फिर बच्चा भी हुआ और बच्चे के होते ही इसकी औरत चल बसी और बच्चा भी अपंग निकला.

ग़रीब किसान बाप किसी तरह बच्चे को पास पड़ोस वालो के भरोसे छोड़कर खेतों पर गेंहू दाल उगाने जाता, वो गेंहू दाल जो पूरा भारत ख़ाता है और भारत के बाहर के देश भी खाते हैं. वो खेतों से लौटकर आता तो अपने लिए दो मोटी रोटियाँ  बनाता और नमक से ख़ाता. बच्चे के लिए वो शुरू के दिनों में बकरी का दूध लता और बाद के दिनों में बच्चे को भी रोटी खिलाता. हाँ बच्चे के लिए कहीं किसी जुगाड़ से कुछ सब्जी भी ले आता. उस ग़रीब किसान बाप को भी दुनिया के सब बापों की तरह अपने बेटे की चिंता सताती और दुनिया के सब बापों की तरह वो भी चाहता की उसका बेटा हृष्ट-पृष्ट बने. पर हृष्ट पृष्ट तो ठहरी दूर की कौड़ी, उसके बेटे के हाथ पैर तो बस हड्डी, उसपर माँस की एक पतली पर्त, और उसपर चिपकी चमड़ी थे. उस ग़रीब किसान बाप ने अपने बेटे को कई हकीम, वैद्य, झाड़ फूँक वालों, और डॉक्टर को दिखाया. सबने मिलकर उस ग़रीब बाप की ग़रीबी को तो और बढ़ा दिया पर उसके बच्चे के हाथ पैरों की उस पतली माँस की पर्त को ज़रा भी ना बढ़ा पाए. समय के साथ उस ग़रीब किसान बाप की ज़मीन बिकती गयी, ग़रीबी बढ़ती गयी और अंततः वो ग़रीब किसान से ग़रीब दिहाड़ी मजदूर बन गया.

भारत एक विकासशील देश है और भारत के शहरों का विकास तेज़ी से हो रहा है और ये शहर गावों की भूमि को तेज़ी से ख़त्म कर रहे हैं. अतः वो ग़रीब किसान बाप भी भारत को विकसित बनाने के सपने का एक हिस्सा बना और अपने अपंग बच्चे को लेकर शहर आ गया. मजदूरों की झुग्गी बस्ती में उसे भी बसेरा मिल गया. मजदूर दिनभर दिहाड़ी करता, बच्चा झोपड़ी मे अकेला रहता, रात को मजदूर घर लौटता तो मल मूत्र से सने बच्चे को साफ करता, दो रोटी बनाता, ख़ाता, बच्चे को खिलाता, और सो जाता. इसी तरह होते होते बच्चा बारह साल का हो गया और पैरों में कुछ जान आने से घिसट-घिसट कर चलने लगा.

आज वो दिहाड़ी मजदूर फिर काम पर आया है. चालीस मंज़िला इमारत बन रही है एक विदेशी बैंक की. मजदूर पैंतीसवी मंज़िल पर है और बाहर दीवार उठा रहे मिस्त्री का साथ दे रहा है. मजदूर का पैर फिसलता है और वो पैंतीसवी मंज़िल से सीधा धरती माता की सख़्त भूमि पर गिरता है और उसकी खोपड़ी चटाक़ की आवाज़ के साथ धरती माता की गोद मे पसर जाती है और उसका शरीर भी जगह जगह से टेढ़ा मेढ़ा होकर धरती माता की गोद में पसार जाता है और उसका खून धरती माता की गोद को लाल कर देता है. उसकी भी हज़ारों दूसरे मजदूरों की तरह अकाल मौत हो जाती है. एक अरब आबादी वाले इस देश में एक मजदूर की जान की कीमत रेत के एक कण के बराबर ही है.

वापस आते हैं उस बच्चे पर, वो बच्चा हमें हर जगह दिखता है. कभी ट्रेन मे, कभी मंदिर मे, कभी चौराहे पर, कभी किसी ढाबे के बाहर, कभी सड़क पर, अपने अधनंगे अपंग शरीर को अपनी बेजान टाँगो से घसीटता हुआ, हमारे सामने अपने बेढंगे, मरियल, काले, गंदे हाथ फैलाए हुए और अपनी निर्जीव, पीली, धँसी हुई आँखों से हमें निहारते हुए. हम उसे तुच्छ नज़रों से देखते हैं की ये कहाँ से आ गया हमारी व्यस्त दिनचर्या के बीच में, अपनी जेब में पड़ा हुआ सबसे कम वजन का सिक्का ढूँढते हैं, उसके बेढंगे, मरियल, काले, गंदे हाथ मे थमाते हैं, और फिर वो मुड़कर हममें से किसी और की तरफ बढ़ लेता है. हम भी आगे बढ़ लेते हैं अपने दिल को एक हिन्दी फिल्म के गीत के बोल से तसल्ली देते हुए - "आल इज़ वेल!"

क्या हुआ अगर भारत में हज़ारों महिलाएँ असुरक्षित प्रसव के कारण काल के गाल में समा जाती हैं तो! बस दिल पर हाथ रखो और बोलो - "आल इज़ वेल!" क्या हुआ अगर भारत के में लाखों किसान हर साल भूमिहीन होकर दिहाड़ी मजदूरों में बदलते जा रहे हैं तो! क्या हुआ अगर इनमे से कई अकाल मृत्यु या फिर किसी बीमारी का शिकार बनते हैं तो! बस दिल पर हाथ रखो और बोलो - "आल इज़ वेल!" क्या हुआ अगर भारत की सड़को पर हज़ारों भूखे, नंगे, अपंग, भिखारी बच्चे भटकते हैं तो! बस दिल पर हाथ रखो और बोलो - "आल इज़ वेल! आल इज़ वेल!!"

       

Sunday, January 10, 2010

About trains and people and Soul.


I have always found train journeys to be very interesting and contrary to the fact that people hate travelling alone in trains, I always wish to travel alone – not only in trains, but in any kind of public transport. The reason is, we get to come across a very diverse lot of people, places, views, habits, languages and situations while travelling, and the thoughts that follow after observing them are somewhat intriguing for me.
So there I was, on my way back home on the 16th of December in a sleeper class compartment. I somewhat enjoy travelling in a sleeper class compartment because journey in a sleeper class is not monotonous. There is always a little action going on. The train which I boarded was Amritsar – Tatanagar Express, passing through Ludhiana and a major part of Eastern UP on its way. I am specifically mentioning Ludhiana and Eastern UP because of one important factor which connects these two places. Ludhiana boasts of being the largest supplier of all kinds of hosiery in India and as a fact, most of the workers of the hosiery industries of Ludhiana belong to Eastern UP.
Unluckily, there was some kind of strike in Ludhiana and the workers were leaving for their homes. So the train was fully crowded, the sleeper class compartments being more crowded than a general class compartment on a normal day. My ticket was in RAC status and I was supposed to share my berth with a co-passenger. I went to my compartment and looked for my berth and to my bad luck, there were three passengers already seated on it. I told them that it was my berth, responding to which, one of the passengers replied in a harsh and disrespectful tone that it was impossible to be my berth as its number was also there on the ticket of an old man sitting on the berth. I realized that the old man was the co-passenger with whom I was supposed to share the berth and the other two guys were in waiting list. So I tried to explain to them that my ticket and the ticket of the old guy were in RAC status and we were supposed to share the berth, to which the same person replied that there is no rule like this, as if he was the person who framed the rules and regulations of Indian Railways. What was more ironic was that despite of having a waiting ticket, he himself did not get up to let the old man have his berth and restrained me to sit on the berth by reasoning that it belonged to the old man.
Anyways, the TTE arrived and after checking my ticket and tickets of the other guys, he told them to get off the berth and sit on it only if I and the old man allow them to share the berth with us. Suddenly there was a change in attitude of the young man who was arguing with me and he humbly moved to one side and asked me to sit there. I was also being humble and didn’t tell him to get up from the seat considering the fact that there was no other place in the train to be seated.
When I finally got a seat, after standing for nearly one hour, I observed the surroundings. Every seat was occupied by at least 3-4 persons. All of them were from the labor class of Eastern UP which was clearly visible by their appearance and way of speaking (being myself from Eastern UP, I could easily observe that). The whole floor was covered with groundnut shells, newspapers, pan masala wrappers, and other trash. There was some strange stinky smell in the compartment which was further aggravated by the dusty smell of blankets. I went to toilet, opened the door and almost threw up as there were lumps of feces on the floor of the toilet and not only in the first toilet, but in three consecutive toilets I opened.
I returned and then took my bag to keep it at another place. The only place left was the space between the two lower berths alongside the wall. I was proceeding with my bag towards that area when suddenly a lady jumped up from her berth and started yelling -  “yahan kahan rakh rahe ho bag, meri seat hai ye…paisa diya hai ticket ke liye..meri jagah hai…hatao yahan se…hum ‘riks’ (she meant risk) nahi lete train me…”. I was shocked! I respectfully told her that I was placing my bag not under her berth but at a place which was between two berths. Due to her yelling, heads began to pop out in that section of compartment with people peeping in to see what was going on – which is one of the most common habits of our countrymen. I then thought, it was best to stay silent and do whatever I was doing. When I returned back to my seat, the same man who was arguing with me, turned to me and said “Bahut chant mehraru (lady) hai, jabse chadhi hai train me bakbakaye rahi hai. Aise bolat hai jaise poore Hindustan ka itihas janat hai sasuri.” I silently nodded.
After all this tumult, I started thinking. I hated them all. I hated the man who argued with me because he was arguing baselessly. I hated the yelling lady for unnecessarily yelling at me and considering railways to be her private property just because she luckily got a confirmed berth in a country where most of the berths get booked within 2-3 days of opening of reservation. I hated all of them for making the train a giant trash can. I hated those who had pooped in the toilets out of the toilet seat because of their lack of basic sense of hygiene and because of them being blind enough to see that there is a big steel thing with a hole in it which is meant to be used for pooping. I hated them for the stinky air in the compartment which was not breathable because of the stink they all had collectively created in the compartment. I hated them because of the cheap love songs they were playing on their cell phones. I hated them for anything and everything they were doing.
Out of nowhere came to my mind the thought that had I been born in a different place at a different time, I could have been one of them. I could have been the arguing man, or the yelling lady. I could have been the one who was sitting on the other berth and playing “Kuan ma kood jaungi ” on his cell phone. I could have been the one who was eating groundnuts and throwing shells on the floor of the compartment.  What then gives me the right to hate them? What is it that I hate actually? If I hate what they were doing then I might not be right because I might be the one doing the same thing had I been brought up in the conditions they were brought up in. After all, no one is - by birth - the same person which he becomes.
What then gives me the right to hate anyone in the world, to think that I am different, to think that I am superior to anyone? I guess this is why great men have said that all humans are equal. It’s the outer appearance and qualities and habits which we hate in a person and we believe that we hate the person himself. It also then appears that should we hate criminals? It’s not the soul which is responsible for any crime, its human temptations which suppress the voice of soul and lead one to the path of crime. I guess that’s why Gandhi said – Hate the sin, not the sinner.” But again, if it’s the human temptations which are responsible for a crime then I guess there is nothing wrong in punishing the human body. But then again, what gives us the right to punish a human body when it is not created or destroyed by us? All these questions boggled my mind and I sort of sought answers to them. I think no human is different from the other as the soul which dwells within all of us is the same and is connected by the same thread. If one follows what’s quoted in Bhagvad Gita that “As a man discards his threadbare robes and puts on new, so the Spirit throws off Its wornout bodies and takes fresh ones it becomes clear that one is not supposed to consider men to be different as the soul which dwell within them just keeps on changing forms.

Anyways, after thinking all this and sitting almost straight for 9 hours trying to take a nap, I saw lights glittering from a sugar mill which is located some 50 km from my place, i.e., Faizabad. It was still dark outside and someone shouted “Faizabad aa gaya bhaiya chalo utarat jao sab jane…” Almost everyone in the train started arranging their luggage and then they formed two big queues starting from both ends of the compartment and ending at almost the centre of it. The young guy sitting next to me told me to arrange my luggage and get lined up in the queue to which I replied that Faizabad was still almost 1 hour away. He denied and said that the lights were coming from Faizabad and not from a sugar mill as told by me. I again thought that it was best to be silent. I hated him for his ignorance and uncalled for suggestions. I wondered at the stupidity of all of them who formed queues and had to stand in it for one hour because they mistook a sugar mill for Faizabad.